श्रीमद्देवीभागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया।
उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।
देवी को उनका नाम विंध्य पर्वत से मिला और विंध्यवासिनी नाम का शाब्दिक अर्थ है, वह विंध्य में निवास करती हैं। जैसा कि माना जाता है कि धरती पर शक्तिपीठों का निर्माण हुआ, जहां सती के शरीर के अंग गिरे थे, लेकिन विंध्याचल वह स्थान और शक्तिपीठ है, जहां देवी ने अपने जन्म के बाद निवास करने के लिए चुना था। मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी। शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी (नंद बाबा की पुत्री) कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं । इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं, विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां आदिशक्ति के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं||श्री विन्ध्येश्वरी स्तोत्रम् ||
निशुम्भशुम्भमर्दिनी, प्रचंडमुंडखंडनीम |
वने रणे प्रकाशिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||१||
त्रिशुलमुंडधारिणीं, धराविघातहारणीम |
गृहे गृहे निवासिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||२||
दरिद्रदु:खहारिणीं, संता विभूतिकारिणीम |
वियोगशोकहारणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||३||
लसत्सुलोललोचनां, लता सदे वरप्रदाम |
कपालशूलधारिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||४||
करे मुदागदाधरीं, शिवा शिवप्रदायिनीम |
वरां वराननां शुभां, भजामि विंध्यवासिनीम ||५||
ऋषीन्द्रजामिनींप्रदा,त्रिधास्वरुपधारिणींम |
जले थले निवासिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||६||
विशिष्टसृष्टिकारिणीं, विशालरुपधारिणीम |
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